उज्जैन। 25 सितंबर को जल झूलनी अर्थात डोल ग्यारस है। इस अवसर पर सुबह से ही कृष्ण मंदिरों में भक्तों का तांता लगेगा तो वहीं अभिषेक पूजन के भी आयोजन संपन्न किए जाएंगे। रात के समय शहर के विभिन्न स्थानों से झिलमिलाती झांकियों का कांरवा भी निकलेगा।
जिन सामाजिक संगठनों व मंदिरों की तरफ से झांकियां निकाली जाना है उनके द्वारा तैयारियां शुरू कर दी गई है। झांकियों में माता यशोदा और बाल गोपाल भगवान कृष्ण की झांकियों के साथ ही अन्य कई धार्मिक झांकियां शामिल रहेगी और इनका निर्माण भी शुरू कर दिया गया है। विशेषकर शहर में मंदिरों के अलावा बैरवा समाज की तरफ से फूलडोल चल समारोह में विविध झांकियां शामिल की जाती है और ये समाज की विभिन्न इकाईयों द्वारा अलग अलग क्षेत्रों से निकाली जाती है। इस दौरान टाॅवर चैक पर झांकियों को निहारने वाले लोगों की भीड़ लगती है। अखाड़े भी शामिल होंगे और कलाकारों द्वारा विविध करतब भी दिखाए जाएंगे।
डोल ग्यारस का महत्व
कृष्ण जन्माष्टमी के पश्चात् आने वाली एकादशी को डोल ग्यारस बोलते हैं। श्रीकृष्ण जन्म के 18वें दिन माता यशोदा ने उनका जल पूजन किया था। इसी दिन को श्डोल ग्यारसश् के तौर पर मनाया जाता है। जलवा पूजन के पश्चात् ही संस्कारों का आरम्भ होता है। कहीं इसे सूरज पूजा बोलते हैं तो कहीं दश्टोन पूजा बोला जाता है। जलवा पूजन को कुआं पूजा भी बोला जाता है। इस ग्यारस को परिवर्तिनी एकादशीए जलझूलनी एकादशीए वामन एकादशी आदि के नाम से भी जाना जाता है। शुक्ल.कृष्ण पक्ष की एकादशी तिथि को चंद्रमा की ग्यारह कलाओं का असर जीवों पर पड़ता है। इसके फलस्वरूप शरीर के हालात तथा मन की चंचलता स्वाभाविक तौर पर बढ़ जाती है। इसी वजह से उपवास द्वारा शरीर को संभालना तथा ईष्टपूजा द्वारा मन को नियंत्रण में रखना एकादशी व्रत विधान है तथा इसे मुख्य तौर पर किया जाता है। श्डोल ग्यारसश् के मौके पर कृष्ण मंदिरों में पूजा.अर्चना होती है। प्रभु श्री कृष्ण की मूर्ति को श्डोलश् ;रथद्ध में विराजमान कर उनकी शोभायात्रा निकाली जाती है। इस मौके पर कई गाँव.नगर में मेलेए चल समारोह तथा सांस्कृतिक समारोहों का आयोजन भी होता है। इसके साथ.साथ डोल ग्यारस पर ईश्वर राधा.कृष्ण के एक से बढ़कर एक नयनाभिराम विद्युत सज्जित डोल निकाले जाते हैं। इसमें साथ चल रहे अखाड़ों के उस्ताद एवं खलीफा और कलाकार अपने प्रदर्शन से सभी का मन रोमांचित करते हैं। वही एकादशी तिथि का वैसे भी हिन्दू धर्म में बहुत महत्व माना गया है। कहा जाता हैए की जन्माष्टमी का उपवास डोल ग्यारस का उपवास रखे बगैर पूर्ण नहीं होता। एकादशी तिथि में भी शुक्ल पक्ष की एकादशी को उत्तम माना गया है। शुक्ल पक्ष में भी पद्मिनी एकादशी का पुराणों में बहुत अहम बताया गया है। बताया जाता है कि एकादशी से बढ़कर कोई उपवास नहीं है। एकादशी के दिन शरीर में जल की मात्र जितनी कम रहेगीए उपवास पूरा करने में उतनी ही ज्यादा सात्विकता रहेगी। जन्माष्टमी के पश्चात् आने वाली एकादशी जलझूलनी एकादशी के नाम से जानी जाती है। इस दिन रात होते ही मंदिरों में विराजमान प्रभु के विग्रह चांदीए तांबेए पीतल के बने विमानों में बैठक भक्ति धुनों के मध्य एकत्रित एकत्र होने लगते हैं। ज्यादातर विमानों को भक्त कंधों पर लेकर चलते हैं। परम्परा है कि वर्षा ऋतु में पानी खराब हो जाता हैए मगर एकादशी पर प्रभु के जलाशयों में जल विहार के पश्चात् उसका पानी निर्मल होने लगता है। शोभायात्रा में सभी समाजों के मंदिरों के विमान निकलते है। कंधों पर विमान लेकर चलने से प्रतिमा झूलती हैं। ऐसे में एकादशी को जल झूलनी बोला जाता है। मान्यता है कि इस एकादशी का व्रत करने से वाजपेय यज्ञ के समान पुण्य-फल मिलता है। इस दिन व्रत करने से रोग-दोष आदि से मुक्ति मिलती है। व्यक्ति के जीवन में सुख-समृद्धि व मान-प्रतिष्ठा में वृद्धि होती है। इस दिन दान-पुण्य करने से सौभाग्य में वृद्धि होती है।